केवलाद्वैत

केवलाद्वैत(अद्वैत)   सिद्धान्त (सम्प्रदाय)  सब   वैदिक शास्त्रों का  सार है -

  कुछ  लोग     #नैको_मुनिर्यस्य_वचः_प्रमाणम्   इस कथन को लेकर  अद्वैत  सिद्धान्त  को  भी    अन्य  लोक प्रचलित    विविध  सिद्धान्त-सम्प्रदायों  की  समान कोटि  में  ही  समझने  की    भूल  करते हैं  , और    अपने  अनुरूप ही  शास्त्रीय  सिद्धान्त  निर्णय  करके  अद्वैत सिद्धान्त  को   उपेक्षा  का  पात्र  बना  कर रख  देते हैं ।     वे     लोग  ये  भूल  जाते  हैं  कि  यदि  मुनियों में ही  मतभेद  होगा  तो  वेद  में ही मतभेद   की  प्रसक्ति  होगी  , और  वेद  में    मतभेद    होने  पर  वेद     प्रमत्तगीत  की  भॉति अप्रामाणिक  हो  जायेगा ,   जबकि  ऐसा  नहीं है ।

मुनियों की  वाणी  में  भेद भासने  का  कारण ------->

#सर्वे_वेदाः_यत्पदमामनन्ति इत्यादि श्रुतियॉ  समस्त   वेदों का  पर्यवसान्   एक  ही  सार सिद्धान्त  में करती  हैं ,  ऐसे  में  जब  समस्त  वेद    एक  ही   सर्वतन्त्र सिद्धान्त  का  प्रतिपादन  कर  रहे  हैं  ,  तो   वेदों के  पारंगत   मुनिजन   क्यों  उसके  प्रतिपादन  में  विरोध  उत्पन्न करेंगे ?     सुतरां      मुनियों  में   मतभेद     समझने  वाले     ऐसे   भ्रान्त  लोगों के   प्रति  हम तो   ये  कहते हैं कि  #न_हि_ते_मुनयो_भ्रान्ताः_सर्वज्ञत्वात्तेषाम्   अर्थात् मुनि सर्वज्ञ  होते हैं , उनको भ्रान्त  नहीं कहा जा सकता,   वरन्  बाह्य विषयों में आसक्त पुरुषों को    आपाततः   परम पुरुषार्थ  में प्रवेश  सम्भव नहीं है , इसलिये  उनकी  इसी  नास्तिकता  को  दूर  करने  के  लिये   मुनियों ने प्रकारभेद  दर्शाये  हैं ।

    मनुष्य   पुरातन   महान्  मुनियों    के  तात्पर्य  को  न जानकर   वेदविरुद्ध  अर्थ  में  भी   तात्पर्य  को  उत्प्रेक्षित   करते  हुए ,  और  उनके  मतों  को  ही उपादेय  मानकर ग्रहण करते  हुए     वैष्णव,  शैव  ,  शाक्त   आदि    अनेक  मार्गों के  अनुयायी  हो  जाते  हैं ।  अतः     भेद   मुनियों में नहीं ,   लौकिक  मनुष्यों के  अन्तःकरण में है ।

हम  अद्वैती    लोग   अपने  से  अतिरिक्त  अन्य  समस्त    द्वैतवादी   सम्प्रदायों  को    वैसे  ही  अपना  विरोधी  नहीं  समझते ,  जैसे   कारणभूत  मिट्टी    कार्यभूत घड़ों की  विरोधी  नहीं हुआ करती ।    हम  अद्वैती   तो  स्वयं  को  सबके  आत्मा  समझते  हैं ,  भला  आत्मा  का   किसी  से  विरोध   कैसा ।
 

सभी  मुनि   यही  चाहते  हैं  कि   विविध  संस्कार- वासनाओं     से    प्रच्छन्न   जनमानस     येन केन प्रकारेण  समस्त शास्त्रों  के  सारभूत   अद्वैत  वेदान्त सिद्धान्त     को  यथावत्   अपने  जीवन में  चरितार्थ कर  कृतकृत्य हो   सके ,   क्योंकि  यही  समस्त  वैदिक  शास्त्रों  का  चरम  उपदेश है ।

दृग्दृश्यौ द्वौ पदार्थौ स्तः परस्परविलक्षणौ ।
दृग्ब्रह्म दृश्यं मायेति सर्ववेदान्तडिण्डिमः ।।

अहं साक्षीति यो विद्याद्विविच्यैवं पुनः पुनः ।
स एव मुक्तः सो विद्वानिति वेदान्तडिण्डिमः ।।

घटकुड्यादिकं सर्वं मृत्तिकामात्रमेव च ।
तद्वद्ब्रह्म जगत्सर्वमिति वेदान्तडिण्डिमः ।।

ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः ।
अनेन वेद्यं सच्छास्त्रमिति वेदान्तडिण्डिमः ।।

।। श्री राम जय राम जय जय राम ।।

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